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Wednesday, 15 December 2010

जीवन मृत्यु

जगत में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब परिवर्तनशील है। दूसरे शब्दों में, वह सब काल के गाल में समाता जा रहा है। चहचहाट करते हुए पक्षी, भागदौड़ करते हुए पशु, लहलहाते हुए पेड़-पौधे, वनस्पति, प्रकृति में हलचल मचाकर मस्तिष्क को चकरा देने वाले आविष्कार करते हुए मनुष्य सभी एक दिन मर जायेंगे। कई मर गये, कइयों को रोज मरते हुए हम अपने चारों ओर देख ही रहे हैं और भविष्य में कई पैदा हो-होकर मर जायेंगे।

कोई आज गया कोई कल गया कोई जावनहार तैयार खड़ा  
नहीं कायम कोई मुकाम यहाँ चिरकाल से ये ही रिवाज रहा ।। 

दादा गये, पिता गये, पड़ोसी गये, रिश्तेदार गये, मित्र गये और एक दिन हम भी चले जाएँगे इस तथा कथित मौत के मुँह में। यह सब देखते हुए, जानते हुए, समझते हुए भी 50 वर्षवाला 60, 60 वर्षवाला 70, 70 वर्ष वाला 80 और 90 वाला 100 वर्ष उम्र देखने की इच्छा करता है। 100 वर्ष वाला भी मरना नहीं चाहता। मौत किसी को पसन्द नहीं है।

बगीचे में वही के वही पेड़-पौधे, फूल-पत्ते ज्यों के त्यों बने रहें, उनकी काट-छाँट न की जाय, नये न लगायें जाएँ, उनको सँवारा न जाय तो बगीचा बगीचा नहीं रहेगा, जंगल बन जायेगा। बगीचे में काट-छाँट होती रहे, नये पौधे लगते रहें, पुराने, सड़े-गले, पुष्पहीन, ठूँठ, बिनजरूरी पौधे हटा दिये जायें और नये, सुगन्धित, नवजीवन और नवचेतना से ओतप्रोत पौधे लगाये जाएँ यह जरूरी है।

चाँद सफर मेंसितारे सफर में । 
हवाएँ सफर मेंदरिया के किनारे सफर में । 
अरे शायर ! वहाँ की हर चीज सफर में । 
....तो आप बेसफर कैसे रह सकते हैं ?

मौत तो एक पड़ाव है, एक विश्रान्ति-स्थान है। उससे भय कैसा? यह तो प्रकृति की एक व्यवस्था है। यह एक स्थानान्तर मात्र है। उदाहरणार्थ, जैसे मैं अभी यहाँ हूँ। यहाँ से आबू चला जाऊँ तो यहाँ मेरा अभाव हो गया, परन्तु आबू में मेरी उपस्थिति हो गई। आबू से हिमालय चला जाऊँ तो आबू में मेरा अभाव हो जायेगा और हिमालय में मेरी हाजिरी हो जायेगी। इस प्रकार मैं तो हूँ ही, मात्र स्थान का परिवर्तन हुआ।

मृत्यु नवीनता को जन्म देने में एक संधिस्थान है। यह एक विश्राम स्थल है। जिस प्रकार दिन भर के परिश्रम से थका मनुष्य रात्रि को मीठी नींद लेकर दूसरे दिन प्रातः नवीन स्फूर्ति लेकर जागता है उसी प्रकार यह जीव अपना जीर्ण-शीर्ण स्थूल शरीर छोड़कर आगे की यात्रा के लिए नया शरीर धारण करता है।

"तुम्हारा न तो जीवन है और न ही मृत्यु है। तुम जीव नहीं, तुम शिव हो। तुम अमर हो। तुम अनन्त अनादि सच्चिदानन्द परमात्मा हो।

मृत्यु माने महायात्रा, महाप्रस्थान, महानिद्रा। अतः जो मर गये हैं उनकी यात्रा मंगलमय हो, आत्मोन्नतिप्रद हो ऐसा चिन्तन करें न कि अपने मोह और अज्ञान के कारण उनको भी भटकाएँ और खुद भी परेशान हों।

Monday, 25 October 2010

हनुमान जी की विनयशीलता

भगवान श्रीराम वनवास काल के दौरान संकट में हनुमान जी द्वारा की गई अनूठी सहायता से अभिभूत थे। एक दिन उन्होंने कहा, ‘हे हनुमान, संकट के समय तुमने मेरी जो सहायता की, मैं उसे याद कर गदगद हो उठा हूं। सीता जी का पता लगाने का दुष्कर कार्य तुम्हारे बिना असंभव था। लंका जलाकर तुमने रावण का अहंकार चूर-चूर किया, वह कार्य अनूठा था। घायल लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए यदि तुम संजीवनी बूटी न लाते, तो न जाने क्या होता?’ तमाम बातों का वर्णन करके श्रीराम ने कहा, ‘तेरे समान उपकारी सुर, नर, मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैंने मन में खूब विचार कर देख लिया, मैं तुमसे उॠण नहीं हो सकता।’
सीता जी ने कहा, ‘तीनों लोकों में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो हनुमान जी को उनके उपकारों के बदले में दी जा सके।’
श्रीराम ने पुन: जैसे ही कहा, ‘हनुमान, तुम स्वयं बताओ कि मैं तुम्हारे अनंत उपकारों के बदले क्या दूं, जिससे मैं ॠण मुक्त हो सकूं।’
श्री हनुमान जी ने हर्षित होकर, प्रेम में व्याकुल होकर कहा, ‘भगवन, मेरी रक्षा कीजिए- मेरी रक्षा कीजिए, अभिमान रूपी शत्रु कहीं मेरे तमाम सत्कर्मों को नष्ट नहीं कर डाले। प्रशंसा ऐसा दुर्गुण है, जो अभिमान पैदा कर तमाम संचित पुण्यों को नष्ट कर डालता है।’ कहते-कहते वह श्रीराम जी के चरणों में लोट गए। हनुमान जी की विनयशीलता देखकर सभी हतप्रभ हो उठे!

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Eeshay Sansthan