महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...देवताओं
के साथ उसका मित्रभाव हो सकता है। दान करने वाले को भी उत्तम लोक की
प्राप्ति होती है। वस्त्रदान करने वाला चंद्र लोक तक जाता है। स्वर्ण देने
वाला देवता होता है। जो अच्छे रंग की हो, सुगमता से दूध दुहवा लेती हो,
अच्छे बछड़े देने वाली हो। वे गौ के शरीर में जितने रोएं हों, उतने वर्षो
तक परलोक में पुण्यफलों का उपभोग करते हैं। कांसी की दोहनी में द्रव्य,
वस्त्र आदि रखकर दक्षिणा के साथ दान करते हैं। उसकी सारी कामनाए पूर्ण होती
है। गोदान करने वाला मनुष्य अपने पुत्र, पौत्र आदि सात पीढिय़ों का नरक से
उद्धार करता है। शास्त्रीय विधि के अनुसार अन्य वस्तुओं का दान करने वाला
मनुष्य इंद्र लोक तक जाता है। जे सात वर्षों तक हवन करता है वह पीढिय़ों का
उद्धार कर देता है अब आगे...
इसके बाद पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी कहा अब आप हमें वैवस्वत मनु के चरित्र को सुनाइए। तब मार्कण्डेयजी ने सुनाना शुरू किया- सूर्य के एक प्रतापी पुत्र था, जो प्रजापति के समान महान मुनि था। उसने बदरिकाश्रम में जाकर पैर पर खड़े हो दोनों बांहे उठाकर दस हजार वर्ष तक भारी तप किया एक दिन की बात है।मनु चारिणी नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। वहां उनके पास एक मत्स्य आकर बोला-मैं एक छोटी सी मछली हूं। मुझे यहां अपने से बड़ी मछलियों से हमेशा डर बना रहता है। वैवस्वत मनु को उस मत्स्य की बात सुनकर बड़ी दया आई। उन्होंने उसे अपने हाथ पर उठा लिया। पानी से बाहर लाकर एक मटके में रख दिया। मनु का उस मत्स्य में पुत्रभाव हो गया था। उनकी अधिक देख भाल के कारण वह उस मटके में बढऩे और पुष्ट होने लगा।
कुछ ही समय में वह बढ़कर बहुत बड़ा हो गया। मटके में उसका रहना कठिन हो गया। एक दिन उस मत्स्य ने मनु को देखकर कहा भगवन अब आप मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिए। तब मनु ने उसे मटके में से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक योजन चौड़ी थी। वहां भी मत्स्य अनेकों वर्षों तक बढ़ता रहा। वह इतना बढ़ गया कि अब उस बावड़ी में भी नहीं रह पाया।
तब उसने मुनि से प्रार्थना की उसने कहा मुनि- आप मुझे गंगाजी में डाल दीजिए। उसके बाद जब उसे गंगाजी भी छोटी पढऩे लगी तो उसने मुनि से कहा - मुनि में अब यहां हिल-डुल नहीं सकती आप मुझे समुद्र में डाल दी। उस मत्स्य ने प्रसन्न होकर मुनि से कहा आप सप्तर्षि को लेकर एक नौका में बैठ जाएं क्योंकि प्रलय आने वाला है। सभी सप्तऋषि उस नाव में बैठकर चले गए। उसके बाद जब मनु को सृष्ठि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके शक्ति प्राप्त की, उसके बाद शक्ति आरंभ की।
इसके बाद पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी कहा अब आप हमें वैवस्वत मनु के चरित्र को सुनाइए। तब मार्कण्डेयजी ने सुनाना शुरू किया- सूर्य के एक प्रतापी पुत्र था, जो प्रजापति के समान महान मुनि था। उसने बदरिकाश्रम में जाकर पैर पर खड़े हो दोनों बांहे उठाकर दस हजार वर्ष तक भारी तप किया एक दिन की बात है।मनु चारिणी नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। वहां उनके पास एक मत्स्य आकर बोला-मैं एक छोटी सी मछली हूं। मुझे यहां अपने से बड़ी मछलियों से हमेशा डर बना रहता है। वैवस्वत मनु को उस मत्स्य की बात सुनकर बड़ी दया आई। उन्होंने उसे अपने हाथ पर उठा लिया। पानी से बाहर लाकर एक मटके में रख दिया। मनु का उस मत्स्य में पुत्रभाव हो गया था। उनकी अधिक देख भाल के कारण वह उस मटके में बढऩे और पुष्ट होने लगा।
कुछ ही समय में वह बढ़कर बहुत बड़ा हो गया। मटके में उसका रहना कठिन हो गया। एक दिन उस मत्स्य ने मनु को देखकर कहा भगवन अब आप मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिए। तब मनु ने उसे मटके में से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक योजन चौड़ी थी। वहां भी मत्स्य अनेकों वर्षों तक बढ़ता रहा। वह इतना बढ़ गया कि अब उस बावड़ी में भी नहीं रह पाया।
तब उसने मुनि से प्रार्थना की उसने कहा मुनि- आप मुझे गंगाजी में डाल दीजिए। उसके बाद जब उसे गंगाजी भी छोटी पढऩे लगी तो उसने मुनि से कहा - मुनि में अब यहां हिल-डुल नहीं सकती आप मुझे समुद्र में डाल दी। उस मत्स्य ने प्रसन्न होकर मुनि से कहा आप सप्तर्षि को लेकर एक नौका में बैठ जाएं क्योंकि प्रलय आने वाला है। सभी सप्तऋषि उस नाव में बैठकर चले गए। उसके बाद जब मनु को सृष्ठि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके शक्ति प्राप्त की, उसके बाद शक्ति आरंभ की।
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