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Friday, 6 January 2012

समस्याओं को ऐसे सुलझाएंगे तो कभी परेशान नहीं रहेंगे....


 जीवन में कुछ चीजें कभी खत्म नहीं होतीं, बल्कि नई-नई शक्लों में सामने आती रहती हैं। इनमें से एक है - समस्या। इसके छोटे-बड़े दो रूप होते हैं। दरअसल यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो व्यक्ति की समझ, सहनशीलता के अनुसार समस्या छोटी या बड़ी होती है।

किसी एक व्यक्ति के लिए जो समस्या जीवनभर का बोझ बने, वही समस्या दूसरे के लिए चुटकी में निपटाए जाने वाली हो सकती है। समस्याओं को शक्ल बदलने में भी महारत हासिल होती है। इसलिए उपाय, निदान भी वैसे ही जुटाने चा
हिए। प्यास कई लोगों की हो तो केवल एक नल से आ रहा जल पर्याप्त नहीं होगा, फिर निदान जलाशय ही रहेगा।

इसलिए समस्या निपटाने में सूझबूझ का बड़ा महत्व है। समस्या को अपने मनुष्य होने के स्तर पर निपटाएंगे तो तनाव तो होगा ही, परिश्रम भी ज्यादा लगेगा। इसमें किसी सहारे और मददगार की जरूरत को समझें। इसलिए ईश्वर को अपने साथ रखें। परमात्मा ने अपने स्वरूप में भी विभिन्नता रखी है।

वह अपने भक्तों की परीक्षा इसी रूप और रुचि से लेता है। इसीलिए समस्याओं के भी अनेक रूप होते हंै। हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है। हम उससे निपटने में थकते नहीं हैं, बल्कि अपने परमात्मा से यह कहने की इच्छा होती है - तू सितम पर सितम किए जा, हम तैयार हैं।

हम रहम पर रहम मांगेंगे, तू भी तैयार रह। समस्या का मूल क्या है, इसमें समझ काम आती है। समस्या का रूप क्या है, इसके लिए निगाह काम आती है। समस्या दोबारा न आए, इसके लिए दूरदर्शिता होनी चहिए और किसका सहयोग लिया जाए, इस हेतु संपर्क होना चाहिए।

जब प्रलय आने वाला होगा तो ऐसे मिलेंगे इशारे...

महाभारत के अनुसार एक बार की बात है,युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से कहा कि आपने तो अनेक युगों के बाद प्रलय देखा है। आप सारी सृष्टी के कारण से संबंध रखने वाले हैं  मैं आपसे प्रलय कथा सुनना चाहता हूं। तब मार्कण्डेयजी ने कहा ये जो हम लोगों के पास भगवान कृष्ण बैठे हैं ये ही समस्त सृष्टि का निर्माण और संहार करने वाले हैं। ये अनंत हैं इन्हें वेद भी नहीं जानते। जब चारों युगों की समाप्त हो जाते हैं। तब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त हो जाता है।

यह सारा संसार ब्रह्म के दिनभर में रहता है। दिन समाप्त होते ही संसार नष्ट हो जाता है। जब सहस्त्र युग समाप्त हो जाते हैं तब सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। ब्राह्मण शुद्रों के कर्म करते हैं। शुद्र वैश्यों की भांति धन संग्रह करने लगते हैं या क्षत्रियों के कर्म से अपनी जीविका चलाने लगते हैं। शुद्र गायत्री जप को अपनाते हैं। इस तरह सब लोगों का व्यवहार विपरित हो जाता है। मनुष्य नाटे कद के होने लगते हैं। आयु, बल, वीर पराक्रम सब घटने लगता है। सभी लोगों की बातों में सच का अंश बहुत कम होने लगता है। उस समय स्त्रियां भी नाटे कद वाली और बहुत से बच्चे पैदा करने वाली होती हैं।

गांव-गांव में अन्न बिकने लगता है।

ब्राह्मण वेद बेचने लगते हैं। वेश्यावृति बढऩे लगती है। वृक्षों पर फल-फूल बहुत कम लगते हैं। गृहस्थ अपने ऊपर भार पढऩे पर इधर-उधर से कर की चोरी करने लगते हैं। मदिरा पीते हैं और गुरुपत्नी के साथ व्याभिचार करते हैं। जिनसे शरीर में मांस व रक्त बढ़े उन लौकिक कार्यों को करते हैं। स्त्रियां पति को धोखा देकर नौकरों के साथ व्याभिचार करती हैं। वीर पुरुषों की स्त्रियां भी अपने स्वामी का परित्याग करके दूसरों का आश्रय लेती हैं। इस तरह सहस्त्र युग पूरे होने लगते हैं। इसके बाद सात सूर्यों का बहुत प्रचण्ड तेज बढ़ता है और प्रलय की शुरुआत होती है।

Sunday, 1 January 2012

मौन ही है शांति का सबसे आसान रास्ता

शांति चाहते हैं तो मौन सीखिए, केवल मुंह से चुप रहना ही मौन नहीं है। यह अभ्यास से आता है, हम मौन रहते नहीं, मौन हमारे भीतर घटता है। जब हम इसके सही तरीके और इसकी गंभीरता को समझ लेंगे, हमें मौन रहने की कोशिश नहीं करना पड़ेगी, यह खुद हमारे भीतर घटने लगेगा। जीवन में शांति उतरेगी।

मौन के वृक्ष पर शान्ति के फल लगते हैं। आज भी कई गुरु दीक्षा देते समय अपने शिष्यों से कहते हैं हमारे और तुम्हारे बीच मौन घटना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ है अपने गुरु से कम से कम बात करें। मौन तभी सम्पन्न होगा। गुरु शिष्य के बीच जितना मौन होगा शान्ति की उपलब्धि शिष्य को उतनी अधिक होगी। गौतम बुद्ध मौन पर बहुत जोर देते थे। एक दिन अपने शिष्यों के बीच एक फूल लेकर बैठ गए थे और एक भी शब्द बोलते नहीं थे। सारे शिष्य बेचैन हो गए। शिष्यों की मांग रहती है गुरु बोलें फिर हम बोलें। कई बार तो शिष्य लोग गुरु के नहीं बोलने पर गुरु का अहंकार बता देते हैं। यह मान लेते हैं कि हमारे सद्गुरु हमसे दूर हो गए। दरअसल गुरु बोलकर शब्द खर्च नहीं करते बल्कि मौन रहकर अपने शिष्य का मन पढ़ते हैं। बुद्ध का एक शिष्य महाकश्यप जब हंसने लगा तो बुद्ध ने वह फूल उसको दे दिया और अन्य शिष्यों से कहने लगे मुझे जो कहना था मैंने इस महाकश्यप को कह दिया, अब आप लोग इसी से पूछ लो। सब महाकश्यप की ओर मुड़े तो उनका जवाब था जब उन्होंने नहीं कहा तो मैं कैसे बोलूं। सारी बात आपसी समझ की है। मौन की वाणी इसी को कहते हैं। इसे मौन का हस्तांतरण भी माना गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि गुरु से जो ज्ञान प्राप्त हो वह मौन के नाम पर पचा लिया जाए। गुरु के मौन से शिष्य को जो बोध होता है उसे समय आने पर वाणी दी जा सकती है। पर वह वाणी तभी प्रभावशाली होगी जब गुरु और शिष्य के बीच गहरा मौन घटा हो। मौन का हस्तांतरण पति-पत्नी के बीच, बाप-बेटे, भाई-भाई के बीच बिल्कुल ऐसे ही घट सकता है और सम्बन्धों में शान्ति, गरिमा, प्रेम प्रकट होगा।

पति-पत्नी के बीच प्यार तब रहेगा जब उनके रिश्ते में ये बात होगी...