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Sunday, 1 January 2012

मौन ही है शांति का सबसे आसान रास्ता

शांति चाहते हैं तो मौन सीखिए, केवल मुंह से चुप रहना ही मौन नहीं है। यह अभ्यास से आता है, हम मौन रहते नहीं, मौन हमारे भीतर घटता है। जब हम इसके सही तरीके और इसकी गंभीरता को समझ लेंगे, हमें मौन रहने की कोशिश नहीं करना पड़ेगी, यह खुद हमारे भीतर घटने लगेगा। जीवन में शांति उतरेगी।

मौन के वृक्ष पर शान्ति के फल लगते हैं। आज भी कई गुरु दीक्षा देते समय अपने शिष्यों से कहते हैं हमारे और तुम्हारे बीच मौन घटना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ है अपने गुरु से कम से कम बात करें। मौन तभी सम्पन्न होगा। गुरु शिष्य के बीच जितना मौन होगा शान्ति की उपलब्धि शिष्य को उतनी अधिक होगी। गौतम बुद्ध मौन पर बहुत जोर देते थे। एक दिन अपने शिष्यों के बीच एक फूल लेकर बैठ गए थे और एक भी शब्द बोलते नहीं थे। सारे शिष्य बेचैन हो गए। शिष्यों की मांग रहती है गुरु बोलें फिर हम बोलें। कई बार तो शिष्य लोग गुरु के नहीं बोलने पर गुरु का अहंकार बता देते हैं। यह मान लेते हैं कि हमारे सद्गुरु हमसे दूर हो गए। दरअसल गुरु बोलकर शब्द खर्च नहीं करते बल्कि मौन रहकर अपने शिष्य का मन पढ़ते हैं। बुद्ध का एक शिष्य महाकश्यप जब हंसने लगा तो बुद्ध ने वह फूल उसको दे दिया और अन्य शिष्यों से कहने लगे मुझे जो कहना था मैंने इस महाकश्यप को कह दिया, अब आप लोग इसी से पूछ लो। सब महाकश्यप की ओर मुड़े तो उनका जवाब था जब उन्होंने नहीं कहा तो मैं कैसे बोलूं। सारी बात आपसी समझ की है। मौन की वाणी इसी को कहते हैं। इसे मौन का हस्तांतरण भी माना गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि गुरु से जो ज्ञान प्राप्त हो वह मौन के नाम पर पचा लिया जाए। गुरु के मौन से शिष्य को जो बोध होता है उसे समय आने पर वाणी दी जा सकती है। पर वह वाणी तभी प्रभावशाली होगी जब गुरु और शिष्य के बीच गहरा मौन घटा हो। मौन का हस्तांतरण पति-पत्नी के बीच, बाप-बेटे, भाई-भाई के बीच बिल्कुल ऐसे ही घट सकता है और सम्बन्धों में शान्ति, गरिमा, प्रेम प्रकट होगा।

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