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Sunday, 20 May 2012

अपने बच्चों को इस रिश्ते का महत्व समझाएं...

आजकल दोस्त मिलना मुश्किल हो गया है और मित्रता भी एक धंधा बन गई है। जिस उम्र में मित्र बनते हैं, वह उम्र पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर के इतने दबाव में है कि हर संबंध बस लेन-देन का जरिया हो गया है। एक प्रयोग करें, बाहर की दुनिया में अगर दोस्त नहीं बन पा रहे हों और जो पुराने थे, वे वक्त के बही-खाते में जमाखर्च हो गए हों या सब अपनी-अपनी दुनिया में उलझ गए हों तो अब दोस्ती घर में की जाए।
भारतीय परिवारों में रिश्तेदारी तो है, लेकिन दोस्ती नहीं है। हम नातेदारी को महत्व देते हैं, मित्रता को नहीं। इसीलिए पति-पत्नी एक नाता है, यह रिश्ता मित्रता नहीं बन पाता। दोनों एक-दूसरे के लिए जो भी कर रहे होते हैं, उसमें कुटुंब के संबंध रहते हैं, दोस्तों जैसी दोस्ती नहीं। यही हालत बाप-बेटे, मां-बेटी में भी चलती है।
इसी कारण लंबे समय चलते हुए रिश्ते बोझ बन जाते हैं। जबकि दोस्ती में हमेशा ताजगी रहती है। परिवार का आधार प्रेम होना चाहिए और परिवारों में प्रेम की शुरुआत मित्रता से की जाए, क्योंकि मित्रता में यह संभावना रहती है कि एक दिन वह प्रेम में बदल सकती है। और जैसे ही संबंधों में प्रेम जागा तो शुचिता व शांति अपने आप आ जाएगी।
अभी जब एक-दूसरे की मांग पूरी नहीं होती तो आवेश जागता है। लेकिन मैत्री और प्रेम आने के बाद एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव जागेगा। परिवारों में रिश्तों के बीच अपेक्षा ही प्रधान होती है। अपेक्षा अशांति का कारण है। प्रेम अपेक्षा के रूप को बदल देता है। अपेक्षा हटी कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद हो जाएंगे, क्योंकि प्रेम बीच में आते ही हम हर रिश्ते में परमात्मा की झलक देखने लगेंगे। इसी को वैकुंठ कहते हैं।

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