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Sunday, 4 September 2011

....तब आया प्रलय और हो गया सबकुछ खत्म

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...देवताओं के साथ उसका मित्रभाव हो सकता है। दान करने वाले को भी उत्तम लोक की प्राप्ति होती है। वस्त्रदान करने वाला चंद्र लोक तक जाता है। स्वर्ण देने वाला देवता होता है। जो अच्छे रंग की हो, सुगमता से दूध दुहवा लेती हो, अच्छे बछड़े देने वाली हो। वे गौ के शरीर में जितने रोएं हों, उतने वर्षो तक परलोक में पुण्यफलों का उपभोग करते हैं। कांसी की दोहनी में  द्रव्य, वस्त्र आदि रखकर दक्षिणा के साथ दान करते हैं। उसकी सारी कामनाए पूर्ण होती है। गोदान करने वाला मनुष्य अपने पुत्र, पौत्र आदि सात पीढिय़ों का नरक से उद्धार करता है। शास्त्रीय विधि के अनुसार अन्य वस्तुओं का दान करने वाला मनुष्य इंद्र लोक तक जाता है। जे सात वर्षों तक हवन करता है वह पीढिय़ों का उद्धार कर देता है अब आगे...

इसके बाद पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी कहा अब आप हमें वैवस्वत मनु के चरित्र को सुनाइए। तब मार्कण्डेयजी ने सुनाना शुरू किया- सूर्य के एक प्रतापी पुत्र था, जो प्रजापति के समान महान मुनि था। उसने बदरिकाश्रम में जाकर पैर पर खड़े हो दोनों बांहे उठाकर दस हजार वर्ष तक भारी तप किया एक दिन की बात है।मनु चारिणी नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। वहां उनके पास एक मत्स्य आकर बोला-मैं एक छोटी सी मछली हूं। मुझे यहां अपने से बड़ी मछलियों से हमेशा डर बना रहता है। वैवस्वत मनु को उस मत्स्य की बात सुनकर बड़ी दया आई। उन्होंने उसे अपने हाथ पर उठा लिया। पानी से बाहर लाकर एक मटके में रख दिया। मनु का उस मत्स्य में पुत्रभाव हो गया था। उनकी अधिक देख भाल के कारण वह उस मटके में बढऩे और पुष्ट होने लगा।

कुछ ही समय में वह बढ़कर बहुत बड़ा हो गया। मटके में उसका रहना कठिन हो गया। एक दिन उस मत्स्य ने मनु को देखकर कहा भगवन अब आप मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिए। तब मनु ने उसे मटके में से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक योजन चौड़ी थी। वहां भी मत्स्य अनेकों वर्षों तक बढ़ता रहा। वह इतना बढ़ गया कि  अब उस बावड़ी में भी नहीं रह पाया।

तब उसने मुनि से प्रार्थना की उसने कहा मुनि- आप मुझे गंगाजी में डाल दीजिए।  उसके बाद जब उसे गंगाजी भी छोटी पढऩे लगी तो उसने मुनि से कहा - मुनि में अब यहां हिल-डुल नहीं सकती आप मुझे समुद्र में डाल दी। उस मत्स्य ने प्रसन्न होकर मुनि से कहा आप सप्तर्षि को लेकर एक नौका में बैठ जाएं क्योंकि प्रलय आने वाला है। सभी सप्तऋषि उस नाव में बैठकर चले गए। उसके बाद जब मनु को सृष्ठि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके शक्ति प्राप्त की, उसके बाद शक्ति आरंभ की।

Saturday, 28 May 2011

जीवन में जब भी दुख और तनाव आएं, ये करें

दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें, जितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है। 

तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।

इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दिया, इसलिए हम परेशान हैं।

पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग मामला है। जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के सृजन का नाम जीवन है।

इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संग, पूजा-पाठ, गुरु का सान्निध्य इससे बचने और उभरने के उपाय हैं। इसी के साथ ऐसी स्थिति में एक काम और करिए जरा मुस्कुराइए...

जीवन का सफर किसके भरोसे करें पूरा...

अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। सहयोग संसार से लिया जा सकता है, पर इसके भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे यह सोचना नासमझी है, लेकिन केवल अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगे, यह सोच मूर्खता है।

इसलिए सहयोग सबका लेना है लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषिमुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप। कुछ लोग साकार को मानते हैं।

उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं। जो लोग परमात्मा को आकार मानते हैं, मूर्ति में सबकुछ देखते हैं वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं।

वह दिख रहे हैं तो भी हैं और नहीं दिख रहे हैं तो भी हैं। यहीं से हमारा साहस अंगड़ाई लेने लगता है। जीवन में किसी भी रूप में परमात्मा की अनुभूति हमें कल्पनाओं के संसार से बाहर निकालती है। भगवान की यह अनुभूति यथार्थ का धरातल है। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैं, परमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं। क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है।

अवतार का जीवन हमारे लिए दर्पण बन जाता है। आइने में देखो, उस परमशक्ति पर भरोसा करो और यहीं से खुद का भरोसा मजबूत करो।

इस तरह भूला सकते हैं दर्दभरी यादों को....


इस तरह भूला सकते हैं दर्दभरी यादों को....


पीड़ा दायक स्मृतियों को भुला देना ही बुद्धिमानी है और अच्छी बातों को याद रखना समझदारी है, लेकिन यदि अच्छी बातें सही समय पर आचरण में न उतारी गईं तो ये भी बोझ बन जाएंगी। कुछ घटनाएं जीवन में ऐसी होती रहती हैं कि जिन्हें यदि नहीं भुलाया गया तो वे मानसिक उधेड़बुन में हमको पटक देती हैं।

एक घटना फिर कई विपरीत घटनाओं को जन्म देने वाली बन जाती है। इसलिए अप्रिय प्रसंगों को तत्काल विस्मृत करें। इनको सतत् याद रखने का नाम है चिंता। चिंता करने वाला आदमी कुछ समय बाद अवसाद में जरूर डूबेगा। प्रिय और अच्छी स्थितियां सद्पयोग के लिए होती हैं। अपने शुभ कर्मों को एक जगह अपनी स्मृति में स्टॉक की तरह रखना चाहिए और उनका उपयोग भविष्य में करते रहना चाहिए।

चार तरीके से अपने शुभ कर्मों को दूसरों के प्रति उपयोग करें। पहला, अपने से छोटी उम्र के लोगों से अपने शुभ कर्म जोड़ें इससे स्नेह बढ़ेगा। अपने


जैसे ही हमारे शुभकर्म चौथे चरण में परमात्मा के प्रति जुड़ते हैं, बस फिर इसे भक्ति कहा जाएगा। इसलिए अशुभ, अप्रिय और अनुचित घटे हुए को विस्मृत करें, भूल जाएं तथा शुभ को याद रखते हुए उनका इन चार चरणों में सद्पयोग करें। इसका सीधा असर आपके स्वास्थ्य पर पड़ेगा। क्या भूलना है और क्या याद रखना यह अपनेआप में एक इलाज है। आप चिंतामुक्त हुए और आपके कर्मों ने सफलता की यात्रा आरंभ कर दी। ऐसा मानकर चलिए और आरंभ करिए, जरा मुस्कराइए...

Thursday, 26 May 2011

जानिए अगले जन्म में आपका कैसा रंग-रूप होगा?



जानिए अगले जन्म में आपका कैसा रंग-

वैसे तो यह कोई नहीं बता सकता कि कल क्या होने वाला है लेकिन ज्योतिष शास्त्र एक ऐसी विद्या है जिससे काफी हद तक इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जा सकता है। ज्योतिष इशारा कर देता है भविष्य में होने वाली घटनाओं के संबंध में। ज्योतिष से ही अगले और पिछले जन्म के संबंध में कई प्रकार की जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं।

ऐसा माना जाता है कि इस जन्म में हमारे द्वारा किए गए कर्मों के आधार पर ही अगला जन्म प्राप्त होता है। वेद-पुराणों में कई ऐसी बातें हैं जिनसे अगले जन्म के संबंध में अमूल्य ज्ञान दिया गया है। सभी की जिज्ञासा का विषय होता है कि हम अगले जन्म में क्या बनेंगे?

पुराणों के अनुसार मृत्यु के समय जिसका ख्याल मन में होता है, वही शरीर अगले जन्म में हमें प्राप्त होता है। यदि कोई व्यक्ति पशु का ध्यान करता है तो उसी पशु के रूप में जीवन प्राप्त होता है। इस संबंध में भागवत में राजा जड़भरत की कथा दी गई है। कथा के अनुसार राजा जड़भरत को अपने हिरण से काफी लगाव था। जब राजा का अंत समय आया तब भी उनका सारा ध्यान उसी हिरण में लगा हुआ था। इसी वजह से मृत्यु के बाद उन्हें हिरण के रूप में अगला जन्म प्राप्त हुआ।

भागवत तथा अन्य शास्त्रों में इस बात पर जोर दिया गया है कि अंतिम समय में मनुष्य का ध्यान ईश्वर की ओर होना चाहिए। ऐसा करने पर शरीर छोडऩे के बाद आत्मा परमात्मा में विलिन हो जाती है अर्थात् उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। जबकि अन्य बातों की ओर ध्यान होने पर अगले जन्म में वही सब भोगना पड़ता है।

Monday, 23 May 2011

जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं...

जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं...



माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।

एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और

इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें।

कोई पुरुष स्त्री के सामने कब हो जाता है बोना?


कोई पुरुष स्त्री के सामने कब हो जाता है बोना?


हस्थी बसाना सभी को पसंद है भले ही मजबूरी हो या मौज। अधिकांश लोग इससे गुजरते जरूर हैं। जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन में शांति तलाश लेते हैं।
आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उस

यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था 40 इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़ में नहीं आ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली था। मादा का आकार 40 इंच था और नर का 4 इंच। पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है। जो मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली की तरह बोने रह जाएंगे।

हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं। केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।

तब यह दुनिया सबसे मुश्किल काम लगता है...

तब यह दुनिया सबसे मुश्किल काम लगता है...

हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना।
 धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लडख़ड़ाता है, गिर जाता है।

सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है। जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है।

धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता है, अपनी मर्जी से रोक लेता है, अपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है। जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा।

पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना, हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे। धर्म को तराशने की एक क्रिया का नाम है जरा मुस्कराइए...।

Sunday, 8 May 2011

क्या वाकई सभी में भगवान होता है?

ऐसा नहीं है कि अगर कोई अनुचित कर्म करे तो उसे ईश्वर की मरजी मानकर क्षमा कर दिया जाए तो उचित होगा। मायावी संसार में व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरुरी है कि मायावी कानून बने और मायावी दंड भी दिए जाएँ। इस सम्बन्ध में एक कथा बड़ी सटीक और प्रासंगिक है।  यह सुन्दर कथा प्रेममूर्ति स्वामी रामकृष्ण परमहंस के मुखारविंद से निस्सृत है, यानी परमहंसजी ने अपने भक्तों को यह कथा सुनाई थी....
एक दिन शिष्य को उसके गुरु ने बताया कि सभी जीवों में ईश्वर है इसलिए सबसे प्रेम करो, किसी से भी नहीं डरो। एक दिन शिष्य जब भिक्षाटन पर था तब किसी राजा का हाथी पगला गया। चौराहे पर भगदड़ मच गई। सब भागने लगे। लेकिन शिष्य नहीं भागा। उसने सोचा कि गुरूजी के अनुसार तो यह हाथी भी ईश्वर है, इसलिए क्यों भागा जाए?लोग चिल्ला रहे थे उसे सचेत करने लिए कि भागो हाथी तुम्हें कुचल देगा। लेकिन वह नहीं भागा और खड़ा रहा। परिणामस्वरूप हाथी ने उसे घायल कर दिया। गुरूजी को मालूम हुआ तो राजकीय आरोग्यशाला में भागे-भागे आए और शिष्य से पूछा कि यह गजब हुआ कैसे? तो शिष्य ने कहा कि हाथी में जो ईश्वर था उसने मुझे घायल कर दिया। तब गुरूजी ने कहा कि मूर्ख, सिर्फ हाथी में ही ईश्वर था और तुम्हें जो लोग सचेत कर रहे थे, समझा रहे थे कि दूर हट जाओ उनमें ईश्वर नहीं था क्या?

कथा से जो सबक मिलता है वह यह है कि कभी भी सिर्फ शब्दों पर ही नहीं अटकना चाहिये। हर बात की गहराई में जाकर असलियत की जांच-पड़ताल करना चाहिये।