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Sunday, 20 May 2012

जब कभी जीवन में दुःख आये तो क्या करें?

दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें, जितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।

तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।

इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दिया, इसलिए हम परेशान हैं।

पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग मामला है। जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के सृजन का नाम जीवन है।

इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संग, पूजा-पाठ, गुरु का सान्निध्य इससे बचने और उभरने के उपाय हैं।

क्या करें जब जीवन में बिना गलती बदनामी का दौर आए?

 
जिंदगी में कभी-कभी बिना किसी कारण के अपयश मिलता है। हमारी कोई भूमिका न हो, फिर भी जिंदगी में अपकीर्ति आ जाए तो अच्छे-अच्छे सहनशील भी परेशान हो जाते हैं। कहा गया है -‘नास्त्यकीर्ति समो मृत्यु:’ यानी अकीर्ति के समान मृत्यु नहीं है। ऐसा लगता है जैसे मौत आ गई है। जब अकारण अपयश मिले तो मनुष्य दो काम कर जाता है।


पहली स्थिति तो यह होगी कि कुछ न किया जाए, चुपचाप बैठकर इस अपयश को भोग लें। लेकिन ऐसे में भी स्थितियां बार-बार घूमकर सामने आती हैं और निरंतर प्रताड़ना का एक स्थायी दौर जीवन में आ जाता है। दूसरी स्थिति मनुष्य यह बनाता है कि प्रयास करके इस अपयश को धोया जाए।


लेकिन यह इतना आसान नहीं होता। मानसिक दबाव के कारण मार्ग दिखना ही बंद हो जाता है। राम कथा में हम सुन चुके हैं कि भरत को राम वनवास का अपयश अकारण ही मिला था। लेकिन प्रयास और त्याग वृत्ति के कारण वह अपयश यश में बदल गया था।


कभी जीवन में ऐसा हो जाए तो मनुष्य प्रयास शुरू करता है कि यह अकीर्ति मिट जाए, लेकिन परेशानी होने के कारण उसके प्रयास भी उलटे पड़ने लगते हैं। हमारे ही प्रयास हमें और पीड़ा पहुंचाते हैं। तब एक प्रयोग करिए, चूंकि अपयश के कारण पूरा व्यक्तित्व कंपन करने लगता है।


भले ही लोग न देख सकें, पर हम जानते हैं कि ऐसे हालात में थोड़े समय शरीर को बिल्कुल शांत कर दें। बाहरी कंपन दूर करें तो भीतरी यात्रा प्रारंभ हो सकेगी। लगातार विचारशून्य सांस लें और पूरे व्यक्तित्व को अकंपन की स्थिति में ले आएं। अकंपन की स्थिति आपके प्रयासों को अपयश मिटाने में मदद करेगी।

हार या जीत, जानिए भगवान से किस परिस्थिति में क्या मांगा जाए

हमें अपनी कार्यक्षमता पर भरोसा होना चाहिए और अपने लोगों पर भी विश्वास करना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में जो भी घट रहा होता है, उसमें हमसे ऊपर एक परम शक्ति की बड़ी भूमिका रहती है। रामकथा में राम अवतार के पांच कारण बताए गए हैं।

उनमें से एक प्रसंग है कि शिवजी पार्वतीजी को कथा सुनाते हैं कि एक बार नारदजी ने विष्णुजी को शाप दिया। यह सुनकर भवानी चौंक उठीं। उन्होंने कहा - एक तो नारद विष्णुजी के भक्त हैं, उस पर ज्ञानी हैं, उन्होंने शाप क्यों दे दिया? यहां एक बहुत सुंदर पंक्ति आती है -

‘कारन कवन शाप मुनि दीन्हा, का अपराध रमापति कीन्हा।’  नारदजी पार्वतीजी के गुरु हैं। इसलिए उन्हें लग रहा है कि यदि कोई अपराध हुआ होगा तो वह विष्णु ने ही किया होगा, नारद नहीं कर सकते। शंकरजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया। शंकरजी ने कहा -


‘बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोई,
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।’


यह शंकरजी का अपना दर्शन है कि संसार में न कोई मूढ़ है, न ज्ञानी। परमात्मा जब डोरी घुमाता है तो आदमी कठपुतली की तरह डोलता है। वह ऊपर वाला ऐसा है कि न उसकी अंगुली दिखती है और न धागे, बस हम कठपुतलियों की तरह दिखते हैं। हमें अपनी क्षमता पर विश्वास होना चाहिए। ऊपर वाला जिंदगी की डोर अपने हाथ में रखता है, इसलिए सफल हों तो उसे धन्यवाद दें और असफल हों तो उससे ताकत मांगें।

अपने बच्चों को इस रिश्ते का महत्व समझाएं...

आजकल दोस्त मिलना मुश्किल हो गया है और मित्रता भी एक धंधा बन गई है। जिस उम्र में मित्र बनते हैं, वह उम्र पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर के इतने दबाव में है कि हर संबंध बस लेन-देन का जरिया हो गया है। एक प्रयोग करें, बाहर की दुनिया में अगर दोस्त नहीं बन पा रहे हों और जो पुराने थे, वे वक्त के बही-खाते में जमाखर्च हो गए हों या सब अपनी-अपनी दुनिया में उलझ गए हों तो अब दोस्ती घर में की जाए।
भारतीय परिवारों में रिश्तेदारी तो है, लेकिन दोस्ती नहीं है। हम नातेदारी को महत्व देते हैं, मित्रता को नहीं। इसीलिए पति-पत्नी एक नाता है, यह रिश्ता मित्रता नहीं बन पाता। दोनों एक-दूसरे के लिए जो भी कर रहे होते हैं, उसमें कुटुंब के संबंध रहते हैं, दोस्तों जैसी दोस्ती नहीं। यही हालत बाप-बेटे, मां-बेटी में भी चलती है।
इसी कारण लंबे समय चलते हुए रिश्ते बोझ बन जाते हैं। जबकि दोस्ती में हमेशा ताजगी रहती है। परिवार का आधार प्रेम होना चाहिए और परिवारों में प्रेम की शुरुआत मित्रता से की जाए, क्योंकि मित्रता में यह संभावना रहती है कि एक दिन वह प्रेम में बदल सकती है। और जैसे ही संबंधों में प्रेम जागा तो शुचिता व शांति अपने आप आ जाएगी।
अभी जब एक-दूसरे की मांग पूरी नहीं होती तो आवेश जागता है। लेकिन मैत्री और प्रेम आने के बाद एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव जागेगा। परिवारों में रिश्तों के बीच अपेक्षा ही प्रधान होती है। अपेक्षा अशांति का कारण है। प्रेम अपेक्षा के रूप को बदल देता है। अपेक्षा हटी कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद हो जाएंगे, क्योंकि प्रेम बीच में आते ही हम हर रिश्ते में परमात्मा की झलक देखने लगेंगे। इसी को वैकुंठ कहते हैं।

विचार मंथन - 15

एक महात्मा जी जंगल में अपने शिष्यों के साथ जंगल में रहते थे । शिष्यों को एवं नगर से आते रहने वाले जिज्ञासुओं को योगाभ्यास भी सिखाते एवं सत्संग भी करते । उनका एक शिष्य बड़ी चंचल बुद्धि का था । बार - बार जिद करता कि आप कहाँ जंगल में पड़ें हैं,  चलिए, एक बार नगर की सैर करके आते हैं। इतने सारे शिष्य जो आपके हैं । योगीराज ने कहा - " मुझे तो अपनी साधना से अवकाश नहीं है । तू चला जा  । " चेला अकेला ही नगर चला गया । नगर - बाज़ार की शोभा देखे । मन अति प्रसन्न था । इतने में एक भवन की छत पर निगाह पड़ी । देखा की एक अतिशय सुन्दर स्त्री छत पर खड़ी बाल सुखा रही है । बस, वह द्रश्य देखकर ही वह कामदेव के बाण से आहत की तरह छटपटाने लगा ।
वह आश्रम लौटा । गुरु महाराज चेले जी का चेहरा देखकर जान गए थे की बच्चा माया का शिकार हो गया है ।  पूछा । चेले ने जवाब दिया - " महाराज ! छाती में असहनीय दर्द हो रहा है । " महात्मा बोले - "क्या नजर का कांटा ह्रदय में गड़ गया ? गुरु से झूठ न बोल । " लज्जित चेले ने सारा वृत्तान्त सुना दिया । चेले से गुरु महाराज ने उस स्त्री का पता लिया । पता लगाया कि वह नगर के एक सेठ की पत्नी थी । पत्र में  लिखा  की हम पर विश्वाश कर आप अपनी पत्नी लो लेकर इस आश्रम में एक रात के लिए आ जाएँ । महाराज जी की प्रतिष्ठा थे । सबका उन पर विश्वाश था । सेठ जी को अलग बैठाकर महात्मा स्त्री को लेकर शिष्य के पास गए । कहा _ " ले भाई! यह स्त्री तेरे पास है ।  रात भर रहेगी । तू इतना ध्यान रखना कि प्रात: काल सूर्य निकलते ही तेरा देहांत हो जायेगा । इतने घंटे तेरे हैं । तू मौज कर ।" उस स्त्री को पहले ही समझा दिया था उन्होंने कि घबराना मत. तुम्हारे धरम पर कोई आंच नहीं आएगी  ।इधर चेला रात भर काँपता रहा ।सारी काम वासना काफूर हो गए । रात बीत गयी । गुरु जी आये । पूछा तेरी इच्छा पूरी हुई?  

सुखी रहने के सारे तरीकों में ये सबसे अच्छा है...

सब चाहते हैं कि वे खुश रहें, सुखी रहें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कारण क्या है? सारे भौतिक संसाधन, जमानेभर की सुविधाएं और हर तरह का सुख होने के बाद भी हम भीतर से कहीं दु:खी ही हैं। ऐसा क्यों होता है। कारण बहुत सीधा और सरल है, निदान भी वैसा ही सहज है।

हम संसाधनों पर टिक गए हैं। बाहरी आवरण को ही दुनिया समझ रहे हैं। जबकि असली सुख भीतर की यात्रा में मिलेगा। अगर सुखी रहना है तो एक यात्रा अपने भीतर की ओर भी करें।

खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला उनसे दूर हटे और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।

यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लिया, क्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता है, लेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।

मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है।

आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।

Friday, 6 January 2012

समस्याओं को ऐसे सुलझाएंगे तो कभी परेशान नहीं रहेंगे....


 जीवन में कुछ चीजें कभी खत्म नहीं होतीं, बल्कि नई-नई शक्लों में सामने आती रहती हैं। इनमें से एक है - समस्या। इसके छोटे-बड़े दो रूप होते हैं। दरअसल यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो व्यक्ति की समझ, सहनशीलता के अनुसार समस्या छोटी या बड़ी होती है।

किसी एक व्यक्ति के लिए जो समस्या जीवनभर का बोझ बने, वही समस्या दूसरे के लिए चुटकी में निपटाए जाने वाली हो सकती है। समस्याओं को शक्ल बदलने में भी महारत हासिल होती है। इसलिए उपाय, निदान भी वैसे ही जुटाने चा
हिए। प्यास कई लोगों की हो तो केवल एक नल से आ रहा जल पर्याप्त नहीं होगा, फिर निदान जलाशय ही रहेगा।

इसलिए समस्या निपटाने में सूझबूझ का बड़ा महत्व है। समस्या को अपने मनुष्य होने के स्तर पर निपटाएंगे तो तनाव तो होगा ही, परिश्रम भी ज्यादा लगेगा। इसमें किसी सहारे और मददगार की जरूरत को समझें। इसलिए ईश्वर को अपने साथ रखें। परमात्मा ने अपने स्वरूप में भी विभिन्नता रखी है।

वह अपने भक्तों की परीक्षा इसी रूप और रुचि से लेता है। इसीलिए समस्याओं के भी अनेक रूप होते हंै। हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है। हम उससे निपटने में थकते नहीं हैं, बल्कि अपने परमात्मा से यह कहने की इच्छा होती है - तू सितम पर सितम किए जा, हम तैयार हैं।

हम रहम पर रहम मांगेंगे, तू भी तैयार रह। समस्या का मूल क्या है, इसमें समझ काम आती है। समस्या का रूप क्या है, इसके लिए निगाह काम आती है। समस्या दोबारा न आए, इसके लिए दूरदर्शिता होनी चहिए और किसका सहयोग लिया जाए, इस हेतु संपर्क होना चाहिए।

जब प्रलय आने वाला होगा तो ऐसे मिलेंगे इशारे...

महाभारत के अनुसार एक बार की बात है,युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से कहा कि आपने तो अनेक युगों के बाद प्रलय देखा है। आप सारी सृष्टी के कारण से संबंध रखने वाले हैं  मैं आपसे प्रलय कथा सुनना चाहता हूं। तब मार्कण्डेयजी ने कहा ये जो हम लोगों के पास भगवान कृष्ण बैठे हैं ये ही समस्त सृष्टि का निर्माण और संहार करने वाले हैं। ये अनंत हैं इन्हें वेद भी नहीं जानते। जब चारों युगों की समाप्त हो जाते हैं। तब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त हो जाता है।

यह सारा संसार ब्रह्म के दिनभर में रहता है। दिन समाप्त होते ही संसार नष्ट हो जाता है। जब सहस्त्र युग समाप्त हो जाते हैं तब सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। ब्राह्मण शुद्रों के कर्म करते हैं। शुद्र वैश्यों की भांति धन संग्रह करने लगते हैं या क्षत्रियों के कर्म से अपनी जीविका चलाने लगते हैं। शुद्र गायत्री जप को अपनाते हैं। इस तरह सब लोगों का व्यवहार विपरित हो जाता है। मनुष्य नाटे कद के होने लगते हैं। आयु, बल, वीर पराक्रम सब घटने लगता है। सभी लोगों की बातों में सच का अंश बहुत कम होने लगता है। उस समय स्त्रियां भी नाटे कद वाली और बहुत से बच्चे पैदा करने वाली होती हैं।

गांव-गांव में अन्न बिकने लगता है।

ब्राह्मण वेद बेचने लगते हैं। वेश्यावृति बढऩे लगती है। वृक्षों पर फल-फूल बहुत कम लगते हैं। गृहस्थ अपने ऊपर भार पढऩे पर इधर-उधर से कर की चोरी करने लगते हैं। मदिरा पीते हैं और गुरुपत्नी के साथ व्याभिचार करते हैं। जिनसे शरीर में मांस व रक्त बढ़े उन लौकिक कार्यों को करते हैं। स्त्रियां पति को धोखा देकर नौकरों के साथ व्याभिचार करती हैं। वीर पुरुषों की स्त्रियां भी अपने स्वामी का परित्याग करके दूसरों का आश्रय लेती हैं। इस तरह सहस्त्र युग पूरे होने लगते हैं। इसके बाद सात सूर्यों का बहुत प्रचण्ड तेज बढ़ता है और प्रलय की शुरुआत होती है।

Sunday, 1 January 2012

मौन ही है शांति का सबसे आसान रास्ता

शांति चाहते हैं तो मौन सीखिए, केवल मुंह से चुप रहना ही मौन नहीं है। यह अभ्यास से आता है, हम मौन रहते नहीं, मौन हमारे भीतर घटता है। जब हम इसके सही तरीके और इसकी गंभीरता को समझ लेंगे, हमें मौन रहने की कोशिश नहीं करना पड़ेगी, यह खुद हमारे भीतर घटने लगेगा। जीवन में शांति उतरेगी।

मौन के वृक्ष पर शान्ति के फल लगते हैं। आज भी कई गुरु दीक्षा देते समय अपने शिष्यों से कहते हैं हमारे और तुम्हारे बीच मौन घटना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ है अपने गुरु से कम से कम बात करें। मौन तभी सम्पन्न होगा। गुरु शिष्य के बीच जितना मौन होगा शान्ति की उपलब्धि शिष्य को उतनी अधिक होगी। गौतम बुद्ध मौन पर बहुत जोर देते थे। एक दिन अपने शिष्यों के बीच एक फूल लेकर बैठ गए थे और एक भी शब्द बोलते नहीं थे। सारे शिष्य बेचैन हो गए। शिष्यों की मांग रहती है गुरु बोलें फिर हम बोलें। कई बार तो शिष्य लोग गुरु के नहीं बोलने पर गुरु का अहंकार बता देते हैं। यह मान लेते हैं कि हमारे सद्गुरु हमसे दूर हो गए। दरअसल गुरु बोलकर शब्द खर्च नहीं करते बल्कि मौन रहकर अपने शिष्य का मन पढ़ते हैं। बुद्ध का एक शिष्य महाकश्यप जब हंसने लगा तो बुद्ध ने वह फूल उसको दे दिया और अन्य शिष्यों से कहने लगे मुझे जो कहना था मैंने इस महाकश्यप को कह दिया, अब आप लोग इसी से पूछ लो। सब महाकश्यप की ओर मुड़े तो उनका जवाब था जब उन्होंने नहीं कहा तो मैं कैसे बोलूं। सारी बात आपसी समझ की है। मौन की वाणी इसी को कहते हैं। इसे मौन का हस्तांतरण भी माना गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि गुरु से जो ज्ञान प्राप्त हो वह मौन के नाम पर पचा लिया जाए। गुरु के मौन से शिष्य को जो बोध होता है उसे समय आने पर वाणी दी जा सकती है। पर वह वाणी तभी प्रभावशाली होगी जब गुरु और शिष्य के बीच गहरा मौन घटा हो। मौन का हस्तांतरण पति-पत्नी के बीच, बाप-बेटे, भाई-भाई के बीच बिल्कुल ऐसे ही घट सकता है और सम्बन्धों में शान्ति, गरिमा, प्रेम प्रकट होगा।

पति-पत्नी के बीच प्यार तब रहेगा जब उनके रिश्ते में ये बात होगी...