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Wednesday, 25 November 2009

विचार मंथन -12

एक बच्चा अधिकांश समय एकांत में बिताता. उसकी कोई इच्छा  नहीं- बाहर निकलने क़ि इच्छा भी नहीं. खेलने भी नहीं जाता था. कहीं जाता तो वापस अपनी राह लौट आता. माँ को चिंता हुई. प्यार से पूछा-" बेटा क्या बात है, आजकल गुम-सुम रहते हो,खेलते नहीं,कुछ काम भी नहीं करते. स्कूल का कितना सारा काम बिना किये रखा है."बेटे ने विन्रम भाव से कहा- "माँ! मै शांतिपूर्वक जीवन जीने क़ि कोशिश कर रहा हूँ .धीरे- धीरे आदत पड़ जाएगी. माँ बोली - नहीं बेटा! चुपचाप पड़े रहने का नाम शांति नहीं है. यह तो परिस्थितियों  से भागना है, आलस्य है, प्रमाद है. कैसी भी स्थिति हो, धेर्य रखकर अनिवार्य दुखों को वीरता पूर्वक झेलता हुआ भी कोई उद्विगन न हो उसे शांत व्यक्ति कहते है.अकर्म्यन्ता छोड़ो. जीवन जीना सीखो."    

Tuesday, 24 November 2009

विचार मंथन - 11

एक थे वैध जी. उन्हें थी पुराणी खांसी. एक दिन वह एक खांसी के रोगी को कई तरह की गोलियां देकर समझा रहे थे -इन्हें रोज लेना, पांच दिनों में ठीक हो जाओगे . इन गोलियों में वह गुण है की चाहे वह जैसी खांसी हो, दो खुराक में चली जाती है. मरीज ने गोली लेने के लिए हाथ में पानी का गिलास लिया, इतने में वैध जी को जमकर खांसी का ठसका लगा. मरीज बोला- वैध जी !अच्छा होता,मुझे बताने से पहले आपने इसका प्रयोग कर लिया होता . लीजिये! ये गोली आप ले लीजिये."वैध जी मुंह बनाकर बोले-"मुझे तो बुदापे की खांसी है बेटा !"अब ये कौन सी होती है, शायद वे वैध ही जानते हो, पर हम एक बात जान ले क़ि जो हम दूसरों को समझाना या उपदेश देना चाहते है, उस पर पहले हम खुद अमल कर ले. ऐसा हो जाये तो यह संसार स्वर्ग बन जाये.

Monday, 23 November 2009

विचार मंथन - 10

ईसा ने कहा - "गरीबो- अपहिजो के लिए तुमसे जो बन पड़े, दान करो; भले ही वह थोडा हो ". लोग धन देने आने लगे. एक बार जो आया, फिर दोबारा न आया, पर एक विधवा स्त्री प्रतिदिन आती थी और एक पैसा कम से कम डाल देती; कभी कभी ज्यादा भी ड़ाल देती. एक माह के बाद ईसा के पास सभी भक्त आये . जानना चाहते थे कि किसका दान श्रेष्ठ रहा. ईसा ने उस महिला कि ओर संकेत किया कि यह सबसे महान सेवक है, जो स्वयं अभावग्रस्त होते हुए भी निरंतर कुछ न कुछ देती रही. तंगी में भी जिसके मन में देने का भाव है, वह सबसे महान है. वही सबसे बड़ा दानी है. परमार्थ के लिए किया गया सत्कर्म ही दान है . भले ही अंशदान द्वारा थोड़ी सी राशि एकत्र हुई हो, पर वह उस धन कि थैली से बड़ी है,जिसके पीछे  मद-मान छिपा है.

Wednesday, 11 November 2009

विचार मंथन - 9

कठिनाइयाँ एक ऐसी खराद की तरह है, जो मनुष्ये के व्यक्तितित्व को तराश कर चमका दिया करती है। कठिनायों से लड़ने और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्ये में जिस आतमबल का विकास होता है,वह एक अमूल्य सम्पति होती है, जिसको पाकर मनुष्ये को अपार संतोष होता है। कठिनायों से संघर्ष पाकर जीवन में ऐसी तेजी उत्पन हो जाती है, जो पथ के समस्त झाड़ -झंखाडों को काटकर दूर कर देती है।

Sunday, 8 November 2009

विचार मंथन - 8

मगध देश के राजा चित्रांगद वनविहार को निकले । एक सुंदर सरोवर के किनारे महात्मा की कुटीर दिखाई दी। राजा ने कुछ धन महात्मा के लिए भिजवाते हुए कहा कि आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है यह । महात्मा ने वह धनराशी लौटा दी। बड़ी से बड़ी राशि भेजी गई , पर सब लौटा दी गई। राजा स्वयं गए और पूछा कि अपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की ? महात्मा हंसकर बोले - " मेरी जरुरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है राजा ने देखा कुटीर में एक तुम्भा, एक आसन एवं ओड़ने का वस्त्र भर था। यहाँ तक कि धन रखने के लिए और अलमारी आदि भी नहीं थी। रजा ने फिर कहा - " मुझे तो कहीं कुछ दिखाई नहीं देता । " महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने उसे पास बुलाकर उसके कान में बोला - " मैं रसायनी विद्या जनता हूँ किसी भी धातु से सोना बना सकता हूँ।" अब राजा कि नींद उड़ गई । वैभव के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात कटी और महात्मा कि पास सुबह ही पहुंचकर कहा - " महाराज ! मुझे वह विद्या सिखा दीजिये, ताकि मैं राज्यका कल्याण कर सकूँ ।" महात्मा ने कहा - "इसके लिए तुम्हें समय देना होगा । वर्ष भर रोज मेरे पास आना होगा । मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना । एक वर्ष बाद तुम्हें सिखा दूंगा ।" राजा नित्य आने लगा । सत्संग एवं विचारगंगा में स्नान अपना प्रभाव दिखाने लगा । एक वर्ष में राजा कि सोच बदल चुकी थी। महात्मा ने स्नेह से पूछा - "विद्या सीखोगे ?" राजा बोले - "प्रभु ! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया । अब किसी नश्वर विद्या को सिखाकर क्या करूँगा ।" ऐसे होता है कायाकल्प ।

Saturday, 7 November 2009

विचार मंथन - 7

पक्षियों को देखिये ! पशुओं को देखिये ! वे प्रात: से लेकर सायंकाल तक उतनी खुराक बीनते चलते हैं, जितनी वे पचा सकते हैं। पृथ्वी पर बिखरे चारे - दाने की कमी नही। सबेरे से शाम तक घाटा नही पड़ता पर लेते उतना ही हैं, जितना मुँह माँगता और पेट संभालता है। यही प्रसन्न रहने की नीति है।
जब उन्हें स्नान का मन होता है,
तब इच्छित समय तक स्नान करते हैं। उतना ही बड़ा घोंसला बनाते हैं, जिसमें उनका शरीर समा सके। कोई इतना बड़ा नहीं बनता, जिसमें समूचे समुदाय को बिठाया - सुलाया जाय

पेड़ पर देखिये, हर पक्षी ने अपना छोटा घोंसला बनाया है। जानवर अपने रहने लायक छाया का प्रबंध करते है। वे जानते है की स्रष्टा के साम्राज्य में किसी बात की कमी नहीं । जब जिसकी जितनी जरुरत है। आसानी से मिल जाता है। आपस में लड़ने का झंझट क्यों मोल लिया जाय! हम इतना ही लें, जितनी तत्कालीन आवश्यकता हो।
ऐसाकरने से हम सुख - शांतिपूर्वक रहेंगे भी और उन्हें रहने देंगे , जो उसके हकदार हैं।

Thursday, 5 November 2009

विचार मंथन - 6

एक साधू महाराज घर के द्वार पर बेठे तीन भाईयों को उपदेश सुना रहे थे- "बच्चो संसार में संतोष में ही सच्चा सुख है। कछुए की तरह अपने हाथ -पाँव सब ओरसे समेटकर जो अपनी आत्मा में लीन हो जाता है ,वह परमानन्द पाता है। ऐसा व्यक्ति श्रम करे, न करे;उसे संसार में कोई दुःख नही रहता।" घर के भीतर माँ बुहारी लगा रही थी। उसके कानो में भी साधू की वाणी पड़ी। वह चोक्नी हो गई। बाहर आई। तीनो लड़को को लाइन में खड़ा किया। एक को घडा पकडाया ओर पानी भरकर लाने को कहा दुसरे से कहा की ले झाडू ओर घर -बाहर-आँगन सब तरफ़ सफाई कर और तीसरे को बगीचे में गोडाई के लिए भेजा। फिर कहा-"सब काम करके मेरे पास आओ,और भी काम है,फिर तुम्हे पड़ने भी बेठना है।"फिर वह साधू की ओर बड़ी ओर बोली-"भगवन !मेरे बच्चो को यह विष -वारुनी पिलाने के बजाये आप ख़ुद उद्योग करते तो अच्छा रहता। आपके उपदेश से निरुधोगी बने ढेरो व्यक्ति मैंने क़र्ज़ में दबे देखे है। आप मेरे बच्चो को मुझ पर छोड़ दीजिये।" गाँव वालो ने कहा - "महाराज! आपका उपदेश झूठा, इस माँ का आदेश सच्चा - श्रम ही प्रत्यक्ष देवता है। "

Tuesday, 3 November 2009

विचार मंथन - 5

पत्थर की एक चट्टान को देखकर शिष्य ने बुद्धसे कुछ पूछना चाहा । वे ध्यानस्थ थे । जैसे ही ध्यान टूटा, वह पूछ बैठा - " भगवन क्या इस चट्टान पर भी कोई शासन कर सकता है या यही सबसे शक्तिशाली है ?" बुद्ध बोले - " चट्टान से कई गुना शक्ति लोहे में होती है । वह इसे तोड़-तोड़कर टुकड़े - टुकड़े कर देता है " शिष्य फिर बोला - फिर लोहे से भी श्रेष्ट कोई वास्तु है ?" बुद्ध बोले - " क्यों नहीं , अग्नि है, जो लोहे को गलाकर पिघला देती है। फिर उसे चाहे जो शक्ल दी जा सकती है। " शिष्य जिज्ञासु था , बोला - " अग्नि की विकराल लपटों के समक्ष किसी का वश नहीं चल पता होगा ?" बुद्ध बोले - " अग्नि की लपटों को जल शीतलता से मंद कर बुझा देता है।" "जल से टकराने की किसी में क्या ताकत होगी ?" पुनः प्रश्न आया । बुद्ध बोले - " वायु का प्रवाह जलधारा की दिशा को ही बदल देता है । संसार का प्रत्येक प्राणी , प्राण - वायु के महत्त्व को जनता है, क्योंकि इसके बिना जीवन का महत्त्व ही क्या है। शिष्य बोला - " जब प्राण ही जीवन है, तो फिर उससे अधिक महत्त्वपूर्ण तो और कुछ नहीं होना चाहिए ?" अब भगवान हँसे और बोले - " अरे! आदमी की संकल्पशक्ति वायु को - प्राण को भी वश में कर लेती है। मानव की यह सबसे बड़ी शक्ति - संपदा है, विभूति है ।" शिष्य का पूरा समाधान हो गया ।