Wednesday, 25 November 2009
विचार मंथन -12
Tuesday, 24 November 2009
विचार मंथन - 11
Monday, 23 November 2009
विचार मंथन - 10
Wednesday, 11 November 2009
विचार मंथन - 9
Sunday, 8 November 2009
विचार मंथन - 8
Saturday, 7 November 2009
विचार मंथन - 7
जब उन्हें स्नान का मन होता है, तब इच्छित समय तक स्नान करते हैं। उतना ही बड़ा घोंसला बनाते हैं, जिसमें उनका शरीर समा सके। कोई इतना बड़ा नहीं बनता, जिसमें समूचे समुदाय को बिठाया - सुलाया जाय
पेड़ पर देखिये, हर पक्षी ने अपना छोटा घोंसला बनाया है। जानवर अपने रहने लायक छाया का प्रबंध करते है। वे जानते है की स्रष्टा के साम्राज्य में किसी बात की कमी नहीं । जब जिसकी जितनी जरुरत है। आसानी से मिल जाता है। आपस में लड़ने का झंझट क्यों मोल लिया जाय! हम इतना ही लें, जितनी तत्कालीन आवश्यकता हो।
ऐसाकरने से हम सुख - शांतिपूर्वक रहेंगे भी और उन्हें रहने देंगे , जो उसके हकदार हैं।
Thursday, 5 November 2009
विचार मंथन - 6
एक साधू महाराज घर के द्वार पर बेठे तीन भाईयों को उपदेश सुना रहे थे- "बच्चो संसार में संतोष में ही सच्चा सुख है। कछुए की तरह अपने हाथ -पाँव सब ओरसे समेटकर जो अपनी आत्मा में लीन हो जाता है ,वह परमानन्द पाता है। ऐसा व्यक्ति श्रम करे, न करे;उसे संसार में कोई दुःख नही रहता।" घर के भीतर माँ बुहारी लगा रही थी। उसके कानो में भी साधू की वाणी पड़ी। वह चोक्नी हो गई। बाहर आई। तीनो लड़को को लाइन में खड़ा किया। एक को घडा पकडाया ओर पानी भरकर लाने को कहा दुसरे से कहा की ले झाडू ओर घर -बाहर-आँगन सब तरफ़ सफाई कर और तीसरे को बगीचे में गोडाई के लिए भेजा। फिर कहा-"सब काम करके मेरे पास आओ,और भी काम है,फिर तुम्हे पड़ने भी बेठना है।"फिर वह साधू की ओर बड़ी ओर बोली-"भगवन !मेरे बच्चो को यह विष -वारुनी पिलाने के बजाये आप ख़ुद उद्योग करते तो अच्छा रहता। आपके उपदेश से निरुधोगी बने ढेरो व्यक्ति मैंने क़र्ज़ में दबे देखे है। आप मेरे बच्चो को मुझ पर छोड़ दीजिये।" गाँव वालो ने कहा - "महाराज! आपका उपदेश झूठा, इस माँ का आदेश सच्चा - श्रम ही प्रत्यक्ष देवता है। "