Sunday, 8 November 2009
विचार मंथन - 8
मगध देश के राजा चित्रांगद वनविहार को निकले । एक सुंदर सरोवर के किनारे महात्मा की कुटीर दिखाई दी। राजा ने कुछ धन महात्मा के लिए भिजवाते हुए कहा कि आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है यह । महात्मा ने वह धनराशी लौटा दी। बड़ी से बड़ी राशि भेजी गई , पर सब लौटा दी गई। राजा स्वयं गए और पूछा कि अपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की ? महात्मा हंसकर बोले - " मेरी जरुरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है राजा ने देखा कुटीर में एक तुम्भा, एक आसन एवं ओड़ने का वस्त्र भर था। यहाँ तक कि धन रखने के लिए और अलमारी आदि भी नहीं थी। रजा ने फिर कहा - " मुझे तो कहीं कुछ दिखाई नहीं देता । " महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने उसे पास बुलाकर उसके कान में बोला - " मैं रसायनी विद्या जनता हूँ किसी भी धातु से सोना बना सकता हूँ।" अब राजा कि नींद उड़ गई । वैभव के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात कटी और महात्मा कि पास सुबह ही पहुंचकर कहा - " महाराज ! मुझे वह विद्या सिखा दीजिये, ताकि मैं राज्यका कल्याण कर सकूँ ।" महात्मा ने कहा - "इसके लिए तुम्हें समय देना होगा । वर्ष भर रोज मेरे पास आना होगा । मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना । एक वर्ष बाद तुम्हें सिखा दूंगा ।" राजा नित्य आने लगा । सत्संग एवं विचारगंगा में स्नान अपना प्रभाव दिखाने लगा । एक वर्ष में राजा कि सोच बदल चुकी थी। महात्मा ने स्नेह से पूछा - "विद्या सीखोगे ?" राजा बोले - "प्रभु ! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया । अब किसी नश्वर विद्या को सिखाकर क्या करूँगा ।" ऐसे होता है कायाकल्प ।
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