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Sunday, 20 December 2009

विचार मंथन 14

पानी   से भरा कलश सजा हुआ था । उस पर चित्रकारी भी गयी थी । कलश पर एक कटोरी राखी थी, जिससे उसे ढक कर रखा गया था । कटोरी ने कलश से कहा - " भाई कलश ! तुम बड़े उदार हो । तुम सदा दूसरों को देते ही रहते हो। कोई भी खाली बर्तन आए, तुम उसमें अपना जल उँडेल  देते हो । किसी को खाली नहीं जाने देते । " कलश ने कहा - " हाँ, यह तो मेरा कर्त्तव्य है । मैं अपने पास आने वाले हर पात्र को भर देता हूँ । मेरे अंतस का सब कुछ दूसरों के लिए है " कटोरी बोली - " लेकिन आप कभी मुझे नहीं भरते । मैं तो हमेशा आपके सर पर मौजूद रहती हूँ ।" घट बोला - " इसमें मेरा क्या दोष ! दोष तुम्हारे अभिमानी स्वभाव का है । तुम मान -अभिमान कि चाह कि साथ सदा मेरे सर पर चढ़ी रहती हो, जबकि अन्य पात्र मेरे समक्ष आकर झुक जाते हैं । अपनी पात्रता प्रमाणित करते हैं । तुम भी अभिमान छोड़ो, विनम्र बनो, मैं तुम्हे  भी भर दूँगा।"
वस्तुत: पूर्णत्व नम्रता एवं पात्रता के विकास से ही प्राप्त होता है . कोई भी अनुदान बिना सौजन्य के नहीं मिलता । अभिमान ही सबसे बड़ी बाधा है  ।

Wednesday, 9 December 2009

विचार मंथन - 13

आज हर व्यक्ति चाहता है, मेरा पुत्र ही व्यवसाय संभाले, मेरा पुत्र या पुत्री ही मेरे स्थान पर नेता बने । मैं अपने सामने ही उसे तैयार  कर दूँ । ध्रतराष्ट्र की तरह पुत्र मोह्ग्रस्तों की मानो बाढ़ आ गयी है। राजा भरत के सौ पुत्र थे । पर उन्होंने कहा की राज्य में जो सबसे योग्य में जो सबसे योग्य व्यक्ति होगा, वही राजा बनेगा । सभी हमारी  संतानें हैं । सबको अवसर मिलना चाहिए । भूमन्यु नामक एक युवा को सर्वोत्क्रष्ट्र पाया गया । उसे भरत का  उत्तराधिकारी  बनाया  गया । यद्यपि भरत के सौ पुत्र भी प्रतिस्पदर्धा में थे, पर असफल रहे फिर भी किसी के मन में विद्वेष नहीं आया । सभी ने सम्राट भुमंयु का साथ दिया । भुमंयु ने भी अपने पुत्र को राजा नहीं बनाया, प्रजा के ही एक श्रेष्ट व्यक्ति को राजा बनाया । यह परम्परा चलती रही ।
जब दुर्योधन युधिशिठर को पाँच गाँव भी नहीं देने को तैयार था, जब भीष्म पितामह ने पुरखों को आमंत्रित कर कुल का विवरण देने को कहा । तब उन पुरखों ने दुर्योधन युधिशिठर को राजा भरत से लेकर भीष्म तक चली आ रही पूरी परम्परा का विवरण दिया कि कोण कोण  इस सिंहासन पर बैठ चुका है, पर दुर्बुर्द्धि दुर्योधन युद्ध ही चाहता था ।  आज कलिकाल है । दुर्बुद्धि का ही साम्राज्य है ।  इसीलिए यह पुत्रइषणा कि बिडम्बना छाई दिखाई देती है । 

Wednesday, 25 November 2009

विचार मंथन -12

एक बच्चा अधिकांश समय एकांत में बिताता. उसकी कोई इच्छा  नहीं- बाहर निकलने क़ि इच्छा भी नहीं. खेलने भी नहीं जाता था. कहीं जाता तो वापस अपनी राह लौट आता. माँ को चिंता हुई. प्यार से पूछा-" बेटा क्या बात है, आजकल गुम-सुम रहते हो,खेलते नहीं,कुछ काम भी नहीं करते. स्कूल का कितना सारा काम बिना किये रखा है."बेटे ने विन्रम भाव से कहा- "माँ! मै शांतिपूर्वक जीवन जीने क़ि कोशिश कर रहा हूँ .धीरे- धीरे आदत पड़ जाएगी. माँ बोली - नहीं बेटा! चुपचाप पड़े रहने का नाम शांति नहीं है. यह तो परिस्थितियों  से भागना है, आलस्य है, प्रमाद है. कैसी भी स्थिति हो, धेर्य रखकर अनिवार्य दुखों को वीरता पूर्वक झेलता हुआ भी कोई उद्विगन न हो उसे शांत व्यक्ति कहते है.अकर्म्यन्ता छोड़ो. जीवन जीना सीखो."    

Tuesday, 24 November 2009

विचार मंथन - 11

एक थे वैध जी. उन्हें थी पुराणी खांसी. एक दिन वह एक खांसी के रोगी को कई तरह की गोलियां देकर समझा रहे थे -इन्हें रोज लेना, पांच दिनों में ठीक हो जाओगे . इन गोलियों में वह गुण है की चाहे वह जैसी खांसी हो, दो खुराक में चली जाती है. मरीज ने गोली लेने के लिए हाथ में पानी का गिलास लिया, इतने में वैध जी को जमकर खांसी का ठसका लगा. मरीज बोला- वैध जी !अच्छा होता,मुझे बताने से पहले आपने इसका प्रयोग कर लिया होता . लीजिये! ये गोली आप ले लीजिये."वैध जी मुंह बनाकर बोले-"मुझे तो बुदापे की खांसी है बेटा !"अब ये कौन सी होती है, शायद वे वैध ही जानते हो, पर हम एक बात जान ले क़ि जो हम दूसरों को समझाना या उपदेश देना चाहते है, उस पर पहले हम खुद अमल कर ले. ऐसा हो जाये तो यह संसार स्वर्ग बन जाये.

Monday, 23 November 2009

विचार मंथन - 10

ईसा ने कहा - "गरीबो- अपहिजो के लिए तुमसे जो बन पड़े, दान करो; भले ही वह थोडा हो ". लोग धन देने आने लगे. एक बार जो आया, फिर दोबारा न आया, पर एक विधवा स्त्री प्रतिदिन आती थी और एक पैसा कम से कम डाल देती; कभी कभी ज्यादा भी ड़ाल देती. एक माह के बाद ईसा के पास सभी भक्त आये . जानना चाहते थे कि किसका दान श्रेष्ठ रहा. ईसा ने उस महिला कि ओर संकेत किया कि यह सबसे महान सेवक है, जो स्वयं अभावग्रस्त होते हुए भी निरंतर कुछ न कुछ देती रही. तंगी में भी जिसके मन में देने का भाव है, वह सबसे महान है. वही सबसे बड़ा दानी है. परमार्थ के लिए किया गया सत्कर्म ही दान है . भले ही अंशदान द्वारा थोड़ी सी राशि एकत्र हुई हो, पर वह उस धन कि थैली से बड़ी है,जिसके पीछे  मद-मान छिपा है.

Wednesday, 11 November 2009

विचार मंथन - 9

कठिनाइयाँ एक ऐसी खराद की तरह है, जो मनुष्ये के व्यक्तितित्व को तराश कर चमका दिया करती है। कठिनायों से लड़ने और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्ये में जिस आतमबल का विकास होता है,वह एक अमूल्य सम्पति होती है, जिसको पाकर मनुष्ये को अपार संतोष होता है। कठिनायों से संघर्ष पाकर जीवन में ऐसी तेजी उत्पन हो जाती है, जो पथ के समस्त झाड़ -झंखाडों को काटकर दूर कर देती है।

Sunday, 8 November 2009

विचार मंथन - 8

मगध देश के राजा चित्रांगद वनविहार को निकले । एक सुंदर सरोवर के किनारे महात्मा की कुटीर दिखाई दी। राजा ने कुछ धन महात्मा के लिए भिजवाते हुए कहा कि आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है यह । महात्मा ने वह धनराशी लौटा दी। बड़ी से बड़ी राशि भेजी गई , पर सब लौटा दी गई। राजा स्वयं गए और पूछा कि अपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की ? महात्मा हंसकर बोले - " मेरी जरुरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है राजा ने देखा कुटीर में एक तुम्भा, एक आसन एवं ओड़ने का वस्त्र भर था। यहाँ तक कि धन रखने के लिए और अलमारी आदि भी नहीं थी। रजा ने फिर कहा - " मुझे तो कहीं कुछ दिखाई नहीं देता । " महात्मा राजा का कल्याण करना चाहते थे। उन्होंने उसे पास बुलाकर उसके कान में बोला - " मैं रसायनी विद्या जनता हूँ किसी भी धातु से सोना बना सकता हूँ।" अब राजा कि नींद उड़ गई । वैभव के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात कटी और महात्मा कि पास सुबह ही पहुंचकर कहा - " महाराज ! मुझे वह विद्या सिखा दीजिये, ताकि मैं राज्यका कल्याण कर सकूँ ।" महात्मा ने कहा - "इसके लिए तुम्हें समय देना होगा । वर्ष भर रोज मेरे पास आना होगा । मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना । एक वर्ष बाद तुम्हें सिखा दूंगा ।" राजा नित्य आने लगा । सत्संग एवं विचारगंगा में स्नान अपना प्रभाव दिखाने लगा । एक वर्ष में राजा कि सोच बदल चुकी थी। महात्मा ने स्नेह से पूछा - "विद्या सीखोगे ?" राजा बोले - "प्रभु ! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया । अब किसी नश्वर विद्या को सिखाकर क्या करूँगा ।" ऐसे होता है कायाकल्प ।

Saturday, 7 November 2009

विचार मंथन - 7

पक्षियों को देखिये ! पशुओं को देखिये ! वे प्रात: से लेकर सायंकाल तक उतनी खुराक बीनते चलते हैं, जितनी वे पचा सकते हैं। पृथ्वी पर बिखरे चारे - दाने की कमी नही। सबेरे से शाम तक घाटा नही पड़ता पर लेते उतना ही हैं, जितना मुँह माँगता और पेट संभालता है। यही प्रसन्न रहने की नीति है।
जब उन्हें स्नान का मन होता है,
तब इच्छित समय तक स्नान करते हैं। उतना ही बड़ा घोंसला बनाते हैं, जिसमें उनका शरीर समा सके। कोई इतना बड़ा नहीं बनता, जिसमें समूचे समुदाय को बिठाया - सुलाया जाय

पेड़ पर देखिये, हर पक्षी ने अपना छोटा घोंसला बनाया है। जानवर अपने रहने लायक छाया का प्रबंध करते है। वे जानते है की स्रष्टा के साम्राज्य में किसी बात की कमी नहीं । जब जिसकी जितनी जरुरत है। आसानी से मिल जाता है। आपस में लड़ने का झंझट क्यों मोल लिया जाय! हम इतना ही लें, जितनी तत्कालीन आवश्यकता हो।
ऐसाकरने से हम सुख - शांतिपूर्वक रहेंगे भी और उन्हें रहने देंगे , जो उसके हकदार हैं।

Thursday, 5 November 2009

विचार मंथन - 6

एक साधू महाराज घर के द्वार पर बेठे तीन भाईयों को उपदेश सुना रहे थे- "बच्चो संसार में संतोष में ही सच्चा सुख है। कछुए की तरह अपने हाथ -पाँव सब ओरसे समेटकर जो अपनी आत्मा में लीन हो जाता है ,वह परमानन्द पाता है। ऐसा व्यक्ति श्रम करे, न करे;उसे संसार में कोई दुःख नही रहता।" घर के भीतर माँ बुहारी लगा रही थी। उसके कानो में भी साधू की वाणी पड़ी। वह चोक्नी हो गई। बाहर आई। तीनो लड़को को लाइन में खड़ा किया। एक को घडा पकडाया ओर पानी भरकर लाने को कहा दुसरे से कहा की ले झाडू ओर घर -बाहर-आँगन सब तरफ़ सफाई कर और तीसरे को बगीचे में गोडाई के लिए भेजा। फिर कहा-"सब काम करके मेरे पास आओ,और भी काम है,फिर तुम्हे पड़ने भी बेठना है।"फिर वह साधू की ओर बड़ी ओर बोली-"भगवन !मेरे बच्चो को यह विष -वारुनी पिलाने के बजाये आप ख़ुद उद्योग करते तो अच्छा रहता। आपके उपदेश से निरुधोगी बने ढेरो व्यक्ति मैंने क़र्ज़ में दबे देखे है। आप मेरे बच्चो को मुझ पर छोड़ दीजिये।" गाँव वालो ने कहा - "महाराज! आपका उपदेश झूठा, इस माँ का आदेश सच्चा - श्रम ही प्रत्यक्ष देवता है। "

Tuesday, 3 November 2009

विचार मंथन - 5

पत्थर की एक चट्टान को देखकर शिष्य ने बुद्धसे कुछ पूछना चाहा । वे ध्यानस्थ थे । जैसे ही ध्यान टूटा, वह पूछ बैठा - " भगवन क्या इस चट्टान पर भी कोई शासन कर सकता है या यही सबसे शक्तिशाली है ?" बुद्ध बोले - " चट्टान से कई गुना शक्ति लोहे में होती है । वह इसे तोड़-तोड़कर टुकड़े - टुकड़े कर देता है " शिष्य फिर बोला - फिर लोहे से भी श्रेष्ट कोई वास्तु है ?" बुद्ध बोले - " क्यों नहीं , अग्नि है, जो लोहे को गलाकर पिघला देती है। फिर उसे चाहे जो शक्ल दी जा सकती है। " शिष्य जिज्ञासु था , बोला - " अग्नि की विकराल लपटों के समक्ष किसी का वश नहीं चल पता होगा ?" बुद्ध बोले - " अग्नि की लपटों को जल शीतलता से मंद कर बुझा देता है।" "जल से टकराने की किसी में क्या ताकत होगी ?" पुनः प्रश्न आया । बुद्ध बोले - " वायु का प्रवाह जलधारा की दिशा को ही बदल देता है । संसार का प्रत्येक प्राणी , प्राण - वायु के महत्त्व को जनता है, क्योंकि इसके बिना जीवन का महत्त्व ही क्या है। शिष्य बोला - " जब प्राण ही जीवन है, तो फिर उससे अधिक महत्त्वपूर्ण तो और कुछ नहीं होना चाहिए ?" अब भगवान हँसे और बोले - " अरे! आदमी की संकल्पशक्ति वायु को - प्राण को भी वश में कर लेती है। मानव की यह सबसे बड़ी शक्ति - संपदा है, विभूति है ।" शिष्य का पूरा समाधान हो गया ।

Saturday, 31 October 2009

विचार मंथन - 4

एक किसान बड़े काहिल स्वभाव का था । दिन में पॉँच - छ: चक्कर घर के लगा जाता। कभी फसल में पानी ज्यादा चला जाता, कभी ढोर खेत चर जाते । घर पर भी एक - दो घंटे सोकर फिर जाता। घर में दरिद्रता थे। पति - पत्नी में खटपट बनी रहती । किसान ने अपने मित्र से खटपट के बारे में कहा, मित्र ने उसके कान में कुछ देर तक एक सलाह दी। दूसरे दिन किसान बड़े सवेरे खेतों पर चला गया । दोपहर तक घोर परिश्रम करता रहा । आज उसे पसीने से परेशानी न थी। सूर्यदेव सिर पर आ गए, पर वह काम पर लगा रहा । सारी मेंडे ठीक कीं बाड़ भी ठीक की। तभी देखा कि उसकी धरमपत्नी हंसती हुई ताजा भोजन लिए आ पहुँची है । पेड़ कि छायामें बैठकर उसने आग्रहपूर्वक भोजन कराया । किसान ने पूछा - " आज क्या बात है पिर्ये ! इससे पहले तुमने मेरा इतना ध्यान नहीं रखा था । " पत्नी बोली - " पतिदेव ! आज अभी आपको भोजन कि जितनी आवश्यकता थी, उतनी पहले कभी नहीं रहती थी। आप एसेही श्रम करते रहें, मैं रोज आऊंगी । शाम को घर पर साथ खायगें । "
घर - खलिहान में समृध्दी आ गयी । आपस में प्रेम बढ़ गया।

Thursday, 29 October 2009

विचार मंथन - 3

भोजन कैसे करें ? महाभारत में लिखा है - " एकवस्त्रो भुञ्जीत ।" केवल एक वस्त्र धारण करके भोजन न करें । भोजन करते समय एक उत्तरीय (दुपट्टा) अवश्य ओढ़ लें । बाहरी वायु शरीर को भोजन के समय प्रभावित न कर सके , इसलिए यह व्यवस्था है। पवित्र भावसे भोजन करें, आज के होटल, रेस्टोरेंट बफे पद्धती वाले तरीके से नहीं। आयुर्वेद कहता है कि स्नान के बाद ही भोजन करें - स्नान, भगवत्पूजा, फिर भोजन । शरीर अस्वस्थ हो तो गीले कपड़े से शरीर पोंछ दें , वस्त्र बदल दें , भस्म स्नान या मानसिक स्नान कर लें। शिवमन्त्रसे अग्निहोत्र की भभूती शरीर पर लगाने से भस्म स्नान हो जाता है। भोजन के पहले भगवान को भोग लगाकर ही भोजन ग्रहण करें। प्रसाद रूप में जब भोजन किया जाता है तो अन्न में अनुचित आसक्ती न रहेगी । गीता भी ३/२२ में यही कहती है।

Wednesday, 28 October 2009

विचार मंथन - २

एक बरगद के पेड़ नीचे बैठे दस व्यक्ति वार्तालाप कर रहे थे । बूढा बरगद सुन रहा था । वे सभी दुनिया के झंझटों से परेशान होकर भाग आए थे और साधू होने की सोच रहे थे । एक ने कहा कि जब तप करेंगे और ईश्वर प्रसन्न होगा तो क्या माँगेगे ? दूसरे ने कहा - " अन्न बिना जिन्दा रहना मुश्किल हैं, वहीं माँगेंगे ।" तीसरे ने कहा - " बल माँगेंगे ।" चौथे ने कहा - " बुद्धी माँगेंगे । " पाँचवा बोला - " आत्मशांति माँगेंगे ।" तब पहला बोला - अरे मूर्खो हमे स्वर्ग मांगना चाहिए । वहां सभी चीजे एक साथ मिल जाएँगी । विशाल बरगद ठहाका लगाकर हस पड़ा और बोला-"मूर्खो"!सुनो, मेरी बात मानो । तुमसे न तप होगा ओर न कोई वरदान मिलेगा । इतना ही मनोबल होता संसार से भागते क्यों ? संसार को ही अपना तपोवन बना लो । सब से प्रेम करो । फिर देखो, तुम्हे सारी सिद्धियाँ मिल जायेंगी । सब लोट आए और सचमुचएसा ही हुआ कि सेवा में, प्राणिमात्र कि आराधना में लगते ही उन्हें सब सिद्धियाँ स्वतः मिलने लगी। यही अध्यातम का राजमार्ग है।

Tuesday, 27 October 2009

विचार मंथन - १

एक बार पाँच असमर्थ, अपंग लोग एकत्र हुए और कहने लगे की यदि भगवान ने हमें समर्थ बनाया होता तो हम परमार्थ का कार्य करते , पर क्या करें ! अँधा बोला - मेरी आँखें होती तो जहाँ कहीं बिगाड़ दिखाई देता, उसे सुधारने में लग जाता । लंगड़े ने कहा - मेरे पैर होते तो मैं दौड़ - दौड़कर भलाई के काम करता । निर्बल ने कहा - मेरे पास ताकत होती तो अत्याचारीयों को मज़ा चखा देता । निर्धन ने कहा - मेरे पास में धन होता तो मैं दीन -दुखियों के लिए लुटा देता। मुर्ख ने कहा -मैं अगर विद्वान् होता तो संसार में ज्ञान की गंगा बहा देता। चारो और विद्या ही विद्या दिखाई देती। वरुण देवता ने उनकी बातें सुनी। सचाई परखने के लिए उन्होंने सात दिन के लिए सशर्त उन्हें आर्शीवाद दे दिया। जैसे ही रूप बदला, पांचो के विचार भी बदल गए। अंधे ने कामुकता की वृति अपना ली।लंगडा घूमने निकल पड़ा। धनि ठाट-बाट एकत्र करने में लग गया। बलवान दुसरो को सताने लगा। विद्वान् ने सबको उल्लू बनाना चालू कर दिया। वरुण देव लोटे , देखा कि वे तो स्वार्थ सिद्दी में लगे थे। खिन देवता ने वरदान वापिस ले लिए। सब पहले जैसे हो गए। अब उन्हें प्रतिघायें याद आई। समय निकल चुका था। हम सब भी जीवन में मिली विभूतियों को याद नही रखते, उनका सुनियोजन नही करते। करे,तो यह कलेश भरी जिंदगी क्यों जियें ? जियें तो हर पल आनंद के साथ जियें ।

Saturday, 30 May 2009

सदाचार का महत्व

समझने में भूल करना भ्रम है और भ्रम को जान लेना ज्ञान है। संसार में हमारे अनुभव हमारी समझ पर निर्भर है। क्योंकि हमारी समझ में त्रुटियाँ है। इसलिए संसार माया है, भ्रम है। सभी अबुभाव हमारे अपने दृष्टिकोण से होते है। अनुभवकर्ता(द्रष्टा) ही एकमात्र सत्य है।
अनुभवों के बीच अनुभवकर्ता और द्रष्टा को खोजो। प्रत्येक अनुभव हमारे भीतेर एक छाप छोड़ता है। जिससे हमारी बुद्धि द्धक जाती है। इसी क्षण जागो। अपने मस्तिष्क से सभी पुराने अनुभवों को निकाल दो। उस पवित्र आत्मा को देखो जो मैं हूँ, जो तुम हो।
अनुभव और अनुभवकर्ता का भेद
क्या तुम सचमुच यहाँ हो? क्या तुम सुन रहे हो? अब आँखें बंद कर के देखो। कौन सुन रहा है, प्रश्न कौन कर रहा है? कौन बैठा है और कौन क्या चाहता है। कौन उलझन में है? यही अनुभवकर्ता है। इन दो शब्दों में बारीक सा भेद है,जिसने समझ लिया उसने अनुभव कर लिया।
-श्री श्री रविशंकर

Wednesday, 20 May 2009

How far to heaven? Just open your eyes and look. You are in heaven. —Sri Sri Ravi Shankar, San Diego - 1994.

You are Divine. You are part of me. I am part of you. —Sri Sri Ravi Shankar, I Am in All These Forms.

You have been given the highest blessing, the most precious knowledge on this planet. You *are* the Divine Self; you are part of the Self. Walk with that confidence. It's not arrogance. It's, again, Love. —Sri Sri Ravi Shankar, I Am in All These Forms.

Your mind is trying to find an escape and doesn't want to rise to that level to which the master is trying to raise you, trying to pull you up. —Sri Sri Ravi Shankar, I Am in All These Forms.


Want, or desire, arises when you are not happy. Have you seen this? When you are very happy then there is contentment. "Contentment" means "no want". —Sri Sri Ravi Shankar, I Am in All These Forms."Want" is always hanging on to the "I." When the "I" itself is dissolving, "want" also dissolves, disappears. —Sri Sri Ravi Shankar, I Am in All These Forms.Behind everything is your ego: "I, I, I, I." But in seva there is no "I," because it has to be done for someone else. It is for the need of the time, or surrounding people, that you do it. —Sri Sri Ravi Shankar, Seva and the Art of Enthusiasm.So what if somebody recognizes you: "Oh, you are a wonderful person." So what? In that person's mind that thought came and went. It is also finished. That mind has gone. Maybe they keep an attraction for you for some days, some months, so what? That also goes it also goes. —Sri Sri Ravi Shankar, Seva and the Art of Enthusiasm. Much energy is wasted in trying to charm others. And in wanting to charm---I tell you, the opposite happens. —Sri Sri Ravi Shankar, Seva and the Art of Enthusiasm.
By self-study, by observing, by being hollow and empty, you become a channel---you become a part of the Divine. You are able to feel the presence of the Divinity. All the different angels and devas, all these different forms of our consciousness, start blossoming. —Sri Sri Ravi Shankar, The Eight Limbs of Yoga.Some feeling came into you, unpleasant feeling, and you said, "Should not come, it should not come!" Doing that, you are resisting it. When you resist, it persists. Just observe. See, "Oh!" Go deep into it. Dance; stand up on your feet and dance. Be intoxicated; move intoxicated. —Sri Sri Ravi Shankar, Fountain of Joy. Life is nothing to be very serious about. Life is a ball in your hands to play with. Don't hold on to the ball. —Sri Sri Ravi Shankar, Seva and the Art of Enthusiasm.
Meditation is THE comfort in Life. —Sri Sri Ravi Shankar, Lake Tahoe 1999.